Friday, May 17, 2024
No menu items!
Homeआरा भोजपुरजगदीशपुरबाबू कुंवर सिंह से डरी हुई थी अंग्रेज सरकार, गवर्नर जनरल के...

बाबू कुंवर सिंह से डरी हुई थी अंग्रेज सरकार, गवर्नर जनरल के द्वारा इनाम की घोषणा

स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में जिन कुछ तिथियों का विशेष महत्व है उसमें एक तिथि 23 अप्रैल है। 1858 में इसी दिन बाबू कुंवर सिंह ने लीग्रैंड को पराजित कर जगदीशपुर को पुन: स्वतंत्र किया था इसीलिए प्रति वर्ष इस तिथि को ‘विजयोत्सव दिवस’ के रूप में मनाया जाता है

Kunwar Singh Story: स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में जिन कुछ तिथियों का विशेष महत्व है उसमें एक तिथि 23 अप्रैल है। 1858 में इसी दिन बाबू कुंवर सिंह ने लीग्रैंड को पराजित कर जगदीशपुर को पुन: स्वतंत्र किया था इसीलिए प्रति वर्ष इस तिथि को ‘विजयोत्सव दिवस’ के रूप में मनाया जाता है।

अंग्रेज सरकार इस महानायक से कितना डरी हुई थी

Election Commission of India
Election Commission of India

गवर्नर जनरल भारत सरकार के सचिव के हस्ताक्षर से 12 अप्रैल, 1858 की घोषणा की जो बाबू कुंवर सिंह को जीवित अवस्था में किसी ब्रिटिश चौकी अथवा कैंप में सुपुर्द करेगा उस व्यक्ति को 25 हजार रुपए पुरस्कार में दिए जाएंगे। यह साबित होता है कि अंग्रेजों में बाबू कुंवर सिंह का कितना खौफ व्याप्त था। वह उन्हें जीवित पकड़ना चाहती थी पर हमेशा असफल रही। कुंवर सिंह को ‘बाबू साहब’ और ‘तेगवा बहादुर’ के नाम से संबोधित किया जाता है। होली के अवसर पर विशेषकर भोजपुरी भाषी एक गीत गाते है-‘बाबू कुंवर सिंह तेगवा बहादुर, बंगला में उड़ेला अवीर’।

27 जुलाई, 1857 को दानापुर छावनी से विद्रोह कर आए सैनिकों ने बाबू कुंवर सिह का नेतृत्व स्वीकार किया। ब्वायल कोठी/आरा हाउस, जिसमें अंग्रेज छिपे थे उसे घेर लिया। अंग्रेजों की रक्षा हेतु 29 जुलाई को डनबर के नेतृत्व में दानापुर से सेना भेजी गई। युद्ध में डनबर मारा गया। डनबर के मारे जाने की सूचना मिलने पर मेजर विसेंट आयर, जो स्टीमर से प्रयागराज जा रहा था, बक्सर से वापस आरा लौटा और दो अगस्त को चर्चित ‘बीबीगंज’ का युद्ध हुआ। आरा पर नियंत्रण के बाद आयर ने 12 अगस्त को जगदीशपुर पर आक्रमण कर दिया।

Shahpur news
Shobhi Dumra - News
Vishnu Nagar Ara Crime
Shahpur news
Shobhi Dumra - News
Vishnu Nagar Ara Crime
previous arrow
next arrow

हासिल किया अपना गढ़ :

Kunwar Singh Story: 14 अगस्त, 1857 को जगदीशपुर हाथ से निकल जाने के बाद कुंवर सिंह अपने 1200 सैनिकों को लेकर एक महाअभियान पर निकल पड़े। रोहतास, रीवां, बांदा, ग्वालियर, कानपुर, लखनऊ होते हुए 12 फरवरी, 1858 को अयोध्या तथा 18 मार्च, 1858 को आजमगढ़ से 25 मील दूर अतरौलिया नामक स्थान पर आकर डेरा डाला। उनके काफिले में 1,000 सैनिक और 2,500 समर्थकों के होने का उल्लेख मिलता है। आजमगढ़ आने का उनका उद्देश्य शत्रु को पराजित कर प्रयागराज एवं बनारस पर आक्रमण करते हुए अपने गढ़ जगदीशपुर पर पुन: अपना अधिकार स्थपित करना था।

बाबू कुंवर सिह छापामार युद्ध में निपुण थे, अत: आठ माह तक अंग्रेज उनका मुकाबला करने से बचते रहे। अंग्रेजों को जब उनकी योजना का पता चला तो तुरंत मिलमैन 22 मार्च को सेना लेकर मुकाबले के लिए आया और कुंवर सिंह ने चकमा देकर उस पर आक्रमण कर दिया। मिलमैन की मदद के लिए आए कर्नल डेम्स को भी 28 मार्च को हार का सामना करना पड़ा। मिलमैन और डेम्स की फौज कुंवर सिंह की फौज से पराजित हो चुकी थी। इस पराजय से बेचैन लार्ड कैनिंग ने मार्ककेर को युद्ध के लिए भेजा। 500 सैनिकों और आठ तोपों से सळ्सज्जित मार्ककेर की सहायता हेतु सेनापति कैंपबेल ने एडवर्ड लगर्ड को भी आजमगढ़ पहुंचने का आदेश दिया। तमसा नदी के तट पर हुए इस युद्ध में लगर्ड पराजित हुआ।

एक वार से काट दी भुजा :

लगातार हार से घबराई अंग्रेजी हुकूमत ने सेनापति डगलस को भेजा। नघई नामक गांव के पास डगलस और कुंवर सिंह की सेना में संघर्ष हुआ। डगलस भी कुंवर सिंह को पकड़ने में नाकाम रहा। 21 अप्रैल, 1858 को बाबू साहब शिवपुर घाट होकर गंगा नदी पार करने लगे, तभी किसी अंग्रेजी सैनिक की गोली बाबू साहब को लग गई। तब उन्होंने अपनी कटी बांह को मां गंगा में प्रवाहित कर 22 अप्रैल को अपने दो हजार साथियों के साथ जगदीशपुर में प्रवेश किया।

‘भारत में अंग्रेजी राज’ पुस्तक के लेखक सुंदरलाल के अनुसार, ‘बाबू साहब ने बाएं हाथ से तलवार खींचकर घायल दाहिने हाथ को खुद एक वार में कोहनी से काट कर गंगा में फेंक दिया। जिससे भयभीत अंग्रेज सेना बाबू साहब का पीछा करने की साहस तक नहीं जुटा पाई थी।’ बाबू साहब के जगदीशपुर पहुंचने की सूचना मिलने पर 23 अप्रैल को कैप्टन लीग्रैंड ने आधुनिकतम एनफील्ड राइफलों एवं तोपों के साथ आक्रमण किया, मगर युद्ध में मारा गया। शरीर में जहर फैल जाने के कारण 26 अप्रैल को बाबू साहब का स्वर्गारोहण हुआ। बाबू कुंवर सिंह के स्वर्गारोहण के बाद भी उनके छोटे भाई अमर सिंह ने जगदीशपुर की स्वतंत्रता बचाए रखी।

न्योछावर किया सर्वस्व :

Kunwar Singh Story: 15 अगस्त, 1857 से 10 फरवरी, 1858 के मध्य बाबू कुंवर सिंह ने अपनी अविराम स्वतंत्र चेतना से युक्त स्वाधीनता की यज्ञाग्नि प्रज्वलित रखी। कुंवर सिंह के वंशज उज्जैन के परमार वंश के क्षत्रिय थे। इसी वंश के राजा भोज ने भोजपुरी बोली का विकास और विस्तार किया था। अत: वे भोजपुरी भाषी कुंवर सिंह के लिए सर्वस्व न्योछावर करने हेतु कटिबद्ध थे। लेखक सुंदरलाल ने अपनी पुस्तक में यह भी लिखा है कि, ‘17 अक्टूबर, 1858 को जब अंग्रेजों ने जगदीशपुर पर सभी दिशाओं से आक्रमण किया तो महल की 150 स्त्रियों ने शत्रु के हाथ में पड़ना गंवारा न किया और तोपों के मुंह के सामने खड़ी होकर ऐहिक जीवन का अंत कर लिया था।’

अंग्रेज भी करते थे प्रशंसा :

आरा/ब्वायल कोठी की लड़ाई एक सप्ताह चली। ‘टू मंथ्स इन आरा’ के लेखक डा. जान जेम्स हाल ने आरा हाउस का आंखों देखा दृश्य लिखते समय यह स्वीकार किया है कि कुंवर सिंह ने ‘व्यर्थ की हत्या नहीं करवाई। कोठी के बाहर जो ईसाई थे वे सब सुरक्षित थे।’ विनायक दामोदर सावरकर द्वारा लिखित अमर ग्रंथ ‘1857 का स्वातंत्र्य समर’ में जिन सात योद्धाओं के नाम से अलग खंड की रचना की गई है, उसमें से एक खंड बाबू कुंवर सिंह और उनके छोटे भाई अमर सिंह को समर्पित है। बाबू कुंवर सिंह पर इतिहासकार के.के. दत्त की भी पुस्तक है पर फिर भी इतिहास के इस महानायक पर जितना लिखा जाना चाहिए, उतना नहीं लिखा गया।

- Advertisment -
Vikas singh
Vikas singh
sambhavna
aman singh

Most Popular

Don`t copy text!