Kumar Ravindra: बिहार प्रशासनिक सेवा के अधिकारी कुमार रवींद्र ने अपने सोशल साइट से समय के साथ अग्नि की उपादेयता का विस्तृत वर्णन करते कहा की ‘ज्यादा नहीं अभी बस सन 2000 या उसके 5-10 साल पहले की बात होगी।
- हाइलाइट : Kumar Ravindra
- “हे बहिनी !, हे काकी ! तनिक आग दे देतू”
- हे बहिन जी !, हे काकी ! ज़रा आग दे दो ।
Kumar Ravindra आरा: अग्नि मानव सभ्यता के आरम्भिक दिनों से ही जीवन का अनिवार्य भाग रही है। इसकी महत्ता केवल ताप और प्रकाश तक सीमित नहीं है, बल्कि यह संस्कृति, विज्ञान और सामाजिक जीवन के अनेक पहलुओं में गहराई से समाहित है। बिहार प्रशासनिक सेवा के अधिकारी कुमार रवींद्र (Kumar Ravindra) ने अपने सोशल साइट से समय के साथ अग्नि की उपादेयता का विस्तृत वर्णन करते कहा की ‘ज्यादा नहीं अभी बस सन 2000 या उसके 5-10 साल पहले की बात होगी।
मतलब कि बमुश्किल 25-30 साल पहले तक। जब सुबह-शाम होते ही गाँव घर में अगल-बगल की कोई बहन, काकी, अम्मा, फुआ-बुआ, आजी-अइया-माई या नयी-नवेली बहू-पतोह घूंघट निकाल कर अपने अगल-बगल वाले पड़ोसी-पटीदार के घर जातीं और कहतीं, “बहिनी-बिट्टी तनिकी आग दे दो। कल बोरसी में आग जिलाये थे, जाने कैसे बुझ गई।” आज की पीढ़ी को यह सुनने में भी अजीब और अविश्वसनीय लगेगा कि कभी आग भी दूसरे घर से मांग कर लायी जाती थी।
हम लोगों के बचपन में यह एक बहुत ही साधारण और प्रचलित प्रथा थी। जैसे आज भी हम अगल-बगल-पड़ोसी से कोई जरूरत का सामान मांग लेते हैं। उस वक़्त माचिस या दियासलाई का प्रचलन बहुत कम था। ज़्यादातर घरों में माचिस मिलती ही न। मिलती भी तो कहीं छान्ह-छप्पर में घुसेड़ी हुई मिलती। जलती ही न। ऐक्चुअली माचिस पे डिपेंडेंसी ही न थी। क्योंकि लगभग हर घर में कोई न कोई एक कोठरी दूध की कोठरी होती। जिसमें दूध का काम होता। वहीं बोरसी पर, एक हांड़ी में हमेशा दूध गरम होता रहता। धुएं से सारी कोठरी और मटकी काली पड़ जाती और दूध लाल सा हो जाता।
बोरसी वाली कोठरी या फिर चौका-रसोई की राख या गोबर के उपले-कंडे में हमेशा आग जिन्दा रहती। काम ख़त्म होने पर कंडे की आग को राख से ढँक कर रख दिया जाता और जब ज़रूरत होती तो इसी से दुबारा आग सुलगा लेते। ऐसे में जब किसी के घर की आग किसी कारण से बुझ जाती तो झट से बगल वाले घर से आग मांग ली जाती। आग मांगने वाला अपने घर से कोई कंडा / उपला लेकर जाता, और उधर से उसी टुकड़े को सुलगा कर या फिर उसी कंडे / उपले पर कोई सुलगता हुआ टुकड़ा रखकर या फिर चिमटे से पकड़कर अपने घर लाता और आग जला लेता।
ठंडक में तपता / कौड़ा तापते हुए भी यही किया जाता: तब, जब संझा को सबके घरों में चूल्हा जल उठता और चूल्हे पर खदबदाते अदहन से निकले धुएँ का गुबार किसी खपरैल के ऊपर टंग जाता। गाँव के उस चूल्हे की आँच में प्रेम पकता। अगर किसी घर से धुआँ न निकलता दिखता तो पास-पड़ोस की की बूढ़ी माई-काकी तुरंत पूछने चली आतीं, “का बहिनी ! का बिट्टी ! अबहीं तक आगि काहे नाय बरी?”
आज भी किसी के घर कोई अनहोनी-दुर्घटना हो जाती है तो चूल्हे-चौके में आग नहीं जलती।
हमसे एक पीढ़ी के पहले के लोग बताते हैं कि शादी-ब्याह देखने जाते तो कोशिश करते कि गौधुरिया मतलब गोधूलि यानी शाम की बेला हो जाये, जिससे पता चले कि जिस घर में बरदेखाई करने आये हैं उस घर में समय से आग जलती है या नहीं। अर्थात ये तय हो जाएगा कि उस घर में खाने-पीने की कोई कमी नहीं है और उनकी बिटिया सुखी रहेगी।
आग ! अग्नि !
मनाव सभ्यता की पोषक। फिर चाहे वह आदि मानव के समय से देखा जाए, चाहे वैदिक काल से। ऋग्वेद का तो प्रथम शब्द ही अग्नि ही है। ऋचाओं में अग्नि ही प्रथम देव है। ऋग्वेद की ऋचा कहती है, “इदं अग्नये इदं न मम॥
अर्थात, यह जो समर्पित है वह अग्नि का है, यह मेरा नहीं है। और इसीलिए जब यज्ञ की परंपरा विकसित हुई तब यह माना गया कि अग्नि को समर्पित प्रसाद ही अन्य देवताओं को भोग के रूप में मिलता है। वेदों में अग्नि एक प्रमुख और सबसे अधिक आह्वान किए जाने वाले देवताओं में से एक हैं।
यजुर्वेद के अनुसार अग्नि शरीर के हर अंग के लिए मुख्य घटक है। सभी प्रकार के मेटाबॉलिज्म (चयापचय, अपचय, परिवर्तन, पाचन, विषाक्त पदार्थों का विनाश) में अग्नि ही जीवन है, जब जीवन-अग्नि नष्ट हो जाती है तो प्राणी का अंत हो जाता है। या फिर यूनानी पौराणिक कथाओं की बात करें तो देवताओं से अग्नि चुराने वाला “प्रोमेथियस” की चर्चा भी ज़रूरी है।
प्रोमेथियस ने आग के महान देवता को हराकर मानव के लिए आग चुराई थी। इसके बदले में ज़ीउस देवता ने प्रोमेथियस से बदला लेने के लिए प्रोमेथियस को काकेशस पहाड़ पर कीलों से ठोंक दिया और उसके कलेजे को खाने के लिए एक बाज को भेजा। प्रोमेथियस का कलेजा खतम होने के पहले ही फिर से रिजनरेट हो जाता, और बाज फिर से खाना शुरू कर देता है, इस प्रकार किंवदंतियों में वह बाज आज तक प्रोमेथियस के कलेजे को नोंच-नोंच कर खा रहा है।
इस तरह से दुनिया की हर संस्कृति में अग्नि कहीं न कहीं बहुत महत्वपूर्ण रही है, फिर चाहे वह “हर्मीस फायर” हो, प्राचीन जर्मनों की “एल्मिस फायर”, या ग्रीक गॉड अपोलो की जलती हुई मशाल, या मूसा की “बर्निंग बुश” यह अग्नि तत्व ही था जिसने स्थिर ब्रह्मांड को गतिमान किया। दूसरे शब्दों में, अग्नि ने ब्रह्मांड में जीवन फूंका। अग्नि अस्तित्व का फ्यूल है। अग्नि ही जीवन है! अग्नि ही चेहरे का तेज है, यही हमारी ‘औरा’ है, प्रभा है, चमकता वर्ण और ओजस भी है।