Tuesday, November 11, 2025
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कहानी बक्सर जिले के ब्रह्मपुर प्रखंड के रहथुआं गांव की….

Khoicha: “एक एकौना, सहत्र पचौना, गायघाट महरौली,” और अंत में उसने कहा, “खोइच्छा में दिह रहथुआं गांव।” इस प्रकार, जागीरदार की पुत्री ने एक सांस में उनकी सारी जागीरदारी ही मांग ली।

  • हाइलाइट: Khoicha
    • बहू व बेटी में समानता का प्रतीक भी हैं खोइच्छा भराई की रस्म
    • खोइच्छा में बेटी को जागीरदारी तक देने के भी है उदाहरण

बक्सर। खोइच्छा भराई के रस्म को पूरा करने के बाद, जब श्रद्धालुओं ने नम आंखों से मां दुर्गा की प्रतिमाओं को जलाशयों में विसर्जित किया, तो यह दृश्य वास्तव में भावुक कर देने वाला था। किसी भी घर में जब बहू या बेटी की विदाई होती है, तो घर वालों की आंखों में आंसू आना स्वाभाविक है। यह आंसू केवल दुख का प्रतीक नहीं होते, बल्कि यह प्रेम और स्नेह का भी प्रतीक होते हैं। यह एक ऐसा पल होता है जब परिवार के सदस्य अपनी प्रिय बहू या बेटी को विदाई देते हैं, और इस विदाई में उनके दिल में एक विशेष स्थान होता है।

पुरातन काल से चली आ रही लोक परंपराओं और धार्मिक मान्यताओं के अनुसार, घर की विवाहित बहू-बेटियों को उनके विदाई से पूर्व शुभकामनाएं दी जाती हैं। इस परंपरा का उद्देश्य यह होता है कि उनकी यात्रा मंगलमय हो सके। यह परंपरा केवल एक रस्म नहीं है, बल्कि यह हमारी सनातन संस्कृति में बहू और बेटी को एक समान देखने का प्रतीक भी है। खोइच्छा के दौरान आमतौर पर अरवा चावल या जीरा, दुब (घास), खड़ा हल्दी और द्रव्य दिया जाता है। यह सब चीजें एक विशेष महत्व रखती हैं और इन्हें शुभकामनाओं के प्रतीक के रूप में देखा जाता है।

हालांकि, पुरातन काल में राजा, जागीरदार और संभ्रांत लोग खोइच्छा में अपनी बेटियों को गांव और जागीर तक देते थे। इस परंपरा का एक दिलचस्प उदाहरण बक्सर जिले के ब्रह्मपुर प्रखंड के रहथुआं गांव से मिलता है। कहा जाता है कि इस गांव को वहां के जागीरदार ने अपनी बेटी को इस गांव के साथ कई अन्य गांवों को खोइच्छा में दिया था। यह परंपरा आज भी जीवित है, और उनके वंशज आज भी इस परंपरा को मानते हैं।

लोकयुक्ति के अनुसार, जब पुत्री के विवाह के बाद उसकी विदाई का समय आया, तो जागीरदार ने अपनी पुत्री से पूछा, “बोलो खोइच्छा में क्या चाहिए!” लेकिन जागीरदार ने एक शर्त रख दी। इस शर्त के अनुसार, एक सांस में जो भी मांग लोगी, वह उसे दे देगा। यह सुनकर विवाहित पुत्री ने कुछ सोचते हुए अपने पिता से कहा कि वह पहले बारात में आए भाट यानी दरबारी कवि से एकांत में बात करेगी, उसके बाद वह अपनी मांग रखेगी।

इसके बाद, उसकी मुलाकात भाट के साथ एकांत में कराई गई। इसके बाद पुत्री ने पिता से कहा, “अब मैं मांगूंगी।” पिता ने कहा, “मांगो।” पुत्री ने भाट के सिखाए अनुसार कहा, “एक एकौना, सहत्र पचौना, गायघाट महरौली,” और अंत में उसने कहा, “खोइच्छा में दिह रहथुआं गांव।” इस प्रकार, जागीरदार की पुत्री ने एक सांस में उनकी सारी जागीरदारी ही मांग ली। पिता ने भी खुशी पूर्वक खोइच्छा की यह रस्म पूरी की।

वर्तमान में खोइच्छा (Khoicha) की यह रस्म केवल एक विदाई का हिस्सा नहीं है, बल्कि यह एक सांस्कृतिक धरोहर है जो पीढ़ियों से चली आ रही है। यह हमें यह भी याद दिलाती है कि हमारे पूर्वजों ने किस प्रकार से अपने परिवार की महिलाओं को महत्व दिया और उन्हें समाज में एक विशेष स्थान प्रदान किया।

इसलिए, खोइच्छा की यह रस्म हमें यह सिखाती है कि हमें अपने परिवार की महिलाओं का सम्मान करना चाहिए और उन्हें उनके अधिकारों के प्रति जागरूक करना चाहिए। यह परंपरा हमें यह भी याद दिलाती है कि हमें अपने समाज में समानता और न्याय की दिशा में काम करना चाहिए।

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