Saint Jeeyar Swamy – हृदय में वैराग्य हो तो घर और वन में अन्तर नहीं
खबरे आपकी बिहार/आरा: Saint Jeeyar Swamy जीवन की समस्यायें शोक नहीं, भविष्य के आनन्द के सूचक है समस्याये संघर्ष की क्षमता बढ़ाती है और अनुभव संजोने का अवसर प्रदान करती हैं। समस्याओं से संघर्ष करने वालों का ही इतिहास बनता है। जो समस्याओं से भागता है, समाज उसे आदर नहीं देता है। मर्यादित गृहस्थ आश्रम बंधन का कारण नहीं होता न मर्यादित जीवन भटकाव का कारण होता है। जीवन में मर्यादा से हटने के कारण ही भटकाव की स्थिति उत्पन्न होती है। उपरोक्त बातें श्री लक्ष्मी प्रपन्न जीयर स्वामी जी महाराज के ज्ञान यज्ञ में प्रवचन की है।
श्री जीयर स्वामी ने श्रीमद भागवत महापुराण कथा के तहत ब्रह्मा जी द्वारा प्रियव्रत को उपदेश दिये जाने की चर्चा की। उन्होंने कहा कि गृहस्थ आश्रम पवित्र आश्रम है। यह सभी आश्रमों में श्रेष्ठ है। इसमें व्यक्ति को स्वयं परिवार एवं समाज के प्रति दायित्व निर्वहन का बेहतर अवसर प्राप्त होता है। पुत्र, पत्नी और परिवार के साथ मर्यादित जीवन जीते हुये ईश्वर का सानिध्य प्राप्त करने का बहुविध अवसर मिलता है। राजा जनक इस आश्रम में रह कर ही विदेह कहलाये।
Saint Jeeyar Swamy जी ने कहा कि ब्रह्मा जी द्वारा प्रियव्रत को गृहस्थ आश्रम का उपदेश के बाद उसका विवाह विश्वकर्मा की पुत्री बर्हिष्मति के साथ करा दिया गया। स्वामी जी ने कहा कि एक-एक विषय में आसक्ति के कारण प्राणी अपने को बंधन में डाल देते हैं या मृत्यु के विषय बन जाते है। ये विषय शब्द, स्पर्श, रुप रस और गंध आदि है। जीव-जन्तु इनमें से मात्र एक विषय में आसक्ति के कारण बंधन या मृत्यु प्राप्त करते हैं। जैसे हिरण शब्द से, भौरा गंध से, हाथी विषय-सुख और मछली स्वाद के कारण बंधन और मृत्यु को प्राप्त करती है। जबकि मनुष्य पांचों इंद्रियों के पांचों विषय से युक्त है। इन विषयों के प्रति वैराग्य से ही मानव जीवन सफल होगा।
इसके लिए संतान उत्पन्न कर उनका लालन-पालन एवं धनोपार्जन के साथ धीरे-धीरे विरक्त जीवन जीने का अभ्यास करते हुए आसक्ति का त्याग कर दें। आसक्ति के त्याग से घर या वन दोनों समान प्रतीत होते हैं। गृहस्थ संन्यासी से भी बढ़कर है। गृहत्याग संन्यास नहीं हैं, आसक्ति-त्याग सन्यास है। अनासक्त गृहस्थ संन्यासी ही है। स्वामी जी ने कहा कि सन्मार्गी दुख को हंसते हुए सहज स्वीकार करते हैं। सामान्य व्यक्ति परमात्मा को उलाहना देने लगता है। महापुरूष दुख को सुखी मन से स्वीकार करते हैं। महाभारत में श्री कृष्ण ने गर्गाचार्य से पूछा कि जन्म से हम पर कितना संकट आया। गर्गाचार्य ने कहा कि श्रीराम पर कितनी समस्यायें आयीं। समस्याओं को सहज स्वीकार के कारण ही वे मर्यादा पुरुष बने । जीवन की समस्यायें शोक नहीं आनंद के सूचक है।