Faag singing: ढोलक, मंजीरा, झांझ, करताल और नाल की संगत में फाग गीत गाने की परंपरा को जीवित रखते शाहपुर यज्ञ समिति के सदस्यों ने स्थानीय मंदिरों में फाग का सामूहिक गायन किया।
- हाइलाइट्स: Faag singing
- फाग गीतों की मधुर ध्वनि से गुंजायमान हनुमान मंदिर में खूब झूमे लोग
- इस दौरान मंदिरों के प्रांगण फाग गीतों की मधुर ध्वनि से गुंजायमान होते रहे
Faag singing आरा/शाहपुर: शाहपुर की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत, परंपराओं को जीवित रखते यज्ञ समिति के सदस्यों व नगरवासियों द्वारा स्थानीय मंदिरों में फाग का सामूहिक गायन किया गया। इस दौरान मंदिरों का प्रांगण फाग गीतों की मधुर ध्वनि से गुंजायमान होते रहे। यज्ञ समिति द्वारा शाहपुर के मंदिरों में आयोजित फाग समूह गायन एक सराहनीय पहल रहा, यह कार्यक्रम विशेष रूप से युवा पीढ़ी को अपनी सांस्कृतिक विरासत से जुड़े रहने का अवसर था। सबसे अंत में वार्ड -08 के महावीर मंदिर परिसर में फाग गायन के साथ कार्यक्रम का समापन्न किया गया।
इस अवसर पर यज्ञ समिति के अध्यक्ष सह शाहपुर नगर पंचायत के पूर्व चेयरमैन बिजय कुमार सिंह, यज्ञ समिति के उपाध्यक्ष सह पूर्व चेयरमैन शारदानन्द सिंह उर्फ गुड्डू यादव, यज्ञ समिति के कोषाध्यक्ष सत्यदेव पांडेय, सदन चौबे, रवि यादव, प्रदूमन पांडेय, शिवपर्शन यादव, पूर्व पार्षद विवेक कुमार, आजाद गुप्ता, मनीष यादव, राजू गुप्ता, पप्पू गुप्ता, कल्लू चौबे, मुनमुन राय, धर्मेन्द्र पांडेय, नीरज सिन्हा, बंटी पांडेय, हरकेश यादव, अखिलेश साह, सहित अन्य लोग फाग गायन के ताल के साथ मेल करते हुए जमकर झूमते रहें।
फाग गायन की ग्रामीण परंपरा जो होली की पहचान है
भोजपुरी अंचल में फाग गायन (Faag singing) की परंपरा प्राचीन काल से जारी है। इसकी जड़ें वैदिक काल के सामगान से लेकर कृष्ण भक्ति धारा तक फैली हुई हैं। होली का मौका ऐसा ऐसा होता है, जब गांवों में चौपालों, मंदिरों और घर-आंगनों में भी फाग गीत गाने की परंपरा जीवंत हो उठती है। ढोलक, मंजीरा, झांझ, करताल और नाल की संगत में जब फाग गीत गाए जाते हैं, तो सारा वातावरण रसीला और रंगीन हो जाता है। वैसे तो विदाई का क्षण सबसे करुण समय होता है, लेकिन फाग की मस्ती में वो करुणा भी हंसने-हंसाने की वजह बन जाती है। मिथिला वासी आज भी सीता को बेटी मानते हैं। एक फाग गीत में सीता की विदाई की तैयारी हो रही है तो उसका रंग भी फाग में घुल-मिल गया है ।
अरे, गोरिया करी के सिंगार
अंगना में पीसे लीं हरदिया
होए, गोरिया करी के सिंगार
अंगना में पीसे लीं हरदिया
ओ अंगना में पीसे लीं हरदिया
ओ अंगना में पीसे पीसे लीं हरदिया
गोरिया करी के सिंगार
अंगना में पीसे लीं हरदिया
अरे, जनकपुर के हवे सिल सिलबटिया
जनकपुर के हवे सिल सिलबटिया
अरे, अवध के हरदी पुरान हो
अवध के हरदी पुरान
- भोजपुरी के फाग में रचा है राधा-कृष्ण का प्रेम
- फाग की खासियत: बस ताल के साथ मेल करते हुए गाए जाओ
राधा और कृष्ण भले ही ब्रज परंपरा की पहचान हैं, लेकिन बिहार के भोजपुरी फाग (Faag singing) में उनका प्रेम खूब रचा-बसा है। कई फाग गीतों का आधार राधा-कृष्ण का प्रेम प्रसंग ही है, जिसमें श्रीकृष्ण की रासलीला, होली खेलना, ग्वालों के साथ हास-परिहास जैसे विषय फाग गीतों में शामिल हुए है। भोजपुरी में इन फाग गीतों की गायन शैली में जो लय होती है, उन्हें चारताल और खासतौर पर दादरा में पेश किया जाता है। दादरा ताल में गायन होने से फाग लय के साथ बंधकर स्वर से आजाद हो जाता है और चारताल में बंधे होने से इसमें स्पीड आती है। फाग की समूह गायन परंपरा में एक बार गाना और फिर समूह का उसे रिपीट करना बहुत सुहाता है। यह समूह गान लोक संगीत के जरिए सामाजिकता को बांधता है।
भोजपुरी फाग में मस्ती भी है, पलायन का दर्द भी है, विरही की वेदना भी है
उत्तर प्रदेश के पूर्वी ओर से लेकर पूरे बिहार में फाग की ऐसी गूंज है कि इसके आगे सब सूना है। ऐसा नहीं है कि फाग पर भोजपुरी भाषी इलाकों का एकाधिकार है, बल्कि फाग की परंपरा तो अवध, ब्रज, बुंदेलखंड, राजस्थान और हरियाणवी रागिनी में भी है, लेकिन यूपी-बिहार के फाग में मस्ती भी है, पलायन का दर्द भी है। विरही की वेदना भी है। इसमें सास-ननद और परिवार का ताना भी है और सामाजिक बाना भी। इस फाग में चिड़िया (चिरई), तोता (सुग्गा), सांप-बिच्छू (संपिनिया- बीछी) से लेकर खेत-खलिहान, गांव-दुआर सब कुछ है। इसके अलावा इसमें राम भी हैं, कृष्ण भी हैं। राधा और सीता भी हैं। शिव-पार्वती तो अनिवार्य रूप से हैं, जो-जो भी हैं वह सब जी भरकर रंग खेल रहे हैं, अबीर-गुलाल उड़ा रहे हैं और सबको प्रेम रंग मे सराबोर कर रहे हैं।
भंग, चंग, रंग, अंग और तरंग का मेलजोल है फाग
कुल मिलाकर होली के जो पांच खास घटक हैं, भंग, चंग, रंग, अंग और तरंग ये पांचों ही फाग के असली रंग है। पूर्वांचल के कई क्षेत्रों में लोग होली के दिन धूल-मिटटी से भी होली खेलते हैं। इसे धुड़खेल कहा जाता है। इसके बाद रंगो वाली होली की बारी आती है और फिर नहाने के बाद अबीर और गुलाल का दौर चलता है। इस दौरान घर-घर जाकर फगुआ गाने की भी परंपरा है, जो आज सिमटने लगी है, लेकिन डीजे के दूसरे रूप में जिंदा है। इसमें भी विडंबना ये है कि एक-दो फगुआ गीत के बाद फिल्मी गाने लूप में आ जाते हैं।